Sunday, February 12, 2017

खोया हुआ बचपन


कल जब में दफ़्तर से घर लौट रहा था तो कुछ स्कूली बच्चो को देख अपना बचपन याद गया...याद आया वो दोस्तो के बीच गप्पे हांकना कि मेरे घर मे क्या-क्या है और मैने इस वीकेंड पर क्या धमाकेदार किया ? मेरा मन बचपन की यादे संजोए घर पहुच गया और देर तक बचपन की यादो मे खोया रहा ι आज फिर से में उसी रास्ते से घर रहा था मगर आज वो स्कूली बच्चे कही ना थे ι इधर -उधर नज़रे दौड़ाई तो कुछ बच्चे दिखाई दिए, वो पास ही कचरे के ढेर से कुछ चुन रहे थे ι यहाँ वहाँ बगले झाकते हुए घर पहुच गया ι जब फ्रेश होकर कुर्सी पर बैठा तो अचानक ही लगा कि उन कचरा उठाते बच्चो को देख मुझे बचपन याद क्यो नही आया ? क्या वो बच्चे नही है? आख़िर क्यों उन्हे देख कर में बगले झाकने पर मजबूर हो गया? अपनी ही लिखी हुई कविता के अंश याद गये - 'कचरे की प्लास्टिक की थैलियों मे वो एक सपना तलाशता है,नफ़रत से घूरती उन निगाहों मे भी कोई अपना तलाशता हैअचानक ही लगा की मेरी सहानुभूति बस उन शब्दों मे सिमटकर रह गयी है ι फिर लगा सिर्फ़ मैं ही क्यों हम सभी किसी ना किसी रूप मे इन बच्चों के अस्तित्व से जो प्रश्न उठ रहा है उससे बच निकलना चाहते हैं ι हम अपनी जेलों मे कसाब जैसे आतंकवादी को पालकर तो उनके उपर करोड़ो रुपए खर्च कर सकते है, जाँच समिति के नाम पर लाखों रुपए बर्बाद कर सकते है, चूहो के बहाने हज़ारो टन अनाज की चोरी तो कर सकते है मगर ऐसे बच्चो को स्नेह की चादर तो क्या आँसू पोच्छने के लिए रुमाल तक नही दे सकतेι हमारे देश मे बड़े बड़े मुद्दे आते है और चले जाते हैι आजकल सबसे बड़ा मुद्दा ये है की राष्ट्रपति कौन बनेगा? मैं पूछता हूँ की क्या फ़र्क पड़ता है ? प्रणब मुखर्जी बने या संगमा ...इस देश मे राष्ट्रपति की कितनी भूमिका है ये सब जानते हैι शाहरुख ख़ान या सलमान ख़ान अगर कही ओछि हरकत करते है या हाथापाई करते है तो वो ब्रेकिंग न्यूज़ बन जाती है मगर कितने ग़रीब , लावारिस और अनाथ बच्चे गर्मी की लू मे या ठंड की शीतलहर मे अपनी जान गवाँ देते है किसी को पता भी नही चलता ? गाहे -बगाहे अगर इस मुद्दे पर कोई रिपोर्ट बन भी जाती है या कुछ छप भी जाता है तो ना तो उसको कोई देखता है और ना ही कोई पढ़ता हैι क्या सचमुच हम इतने निष्ठूर हो चुके है?एक तरफ तो लाखों टन आनाज़ बर्बाद होने पर भी देश का प्रधानमंत्री कहता है कि हम किसी को आनाज़ मुफ़्त मे नही दे सकते और दूसरी तरफ हर महीने 2000 बच्चे भूख का शिकार हो अपना दम तोड़ देते है ι आख़िर किस रास्ते जा रहे है हम? इस देश के ऐसे लोग जो एक दिन मे करोड़ो रुपए कमाते है क्या कुछ सौ बच्चो को भी पालने का दम नही रखते? क्या हम इतने क्रूर हो गये है कि हज़ारो रुपए की पार्टियाँ तो कर सकते हैं मगर हमारे सामने भूख से बिलखते बच्चे को दो रोटी नहीं दे सकते ? क्या हमारी सरकार इतनी संवेदनाहिन हो गई है कि करोड़ो रुपए के कॉमनवेल्थ और 2जी स्पेक्ट्रम घोटालो को तो नज़रअंदाज़ कर सकती है मगर इन बच्चो के भविष्य के लिए कुछ नही कर सकती? बड़ी विडंबना है हमारे देश की भी...हमे ये कहने मे फक्र महसूस होता है कि हिन्दुस्तान सबको अपना लेता है चाहे वो अपना हो या पराया मगर अपने ही देश के मजबूर बच्चो को आज तक हम अपना नही पाए है ι जो क़ानून के ठेकेदार बाल-मज़दूरी दंडनीय है और शिक्षा सबका मौलिक अधिकार है जैसे स्लोगन निकालकर उसे अपनी रिपोर्ट कार्ड पर उपलब्धि के रूप मे दिखाते है उन्ही के घरों मे छोटे बच्चे बर्तन सॉफ करते हैι आज ज़रूरत है हमारे एकजूट प्रयास की ज़रूरत है कि हम ऐसे बच्चो को नफरत की दृष्टी से नहीं बल्कि स्नेह की दृष्टी से देखे और अपने देश की सरकार को कुछ ठोस कदम उठाने के लिए प्रेरित करें ι अगर मीडिया और हम मिलजुल कर प्रयास करें तो ये संभव है की ऐसा एक भी बच्चा सड़क पर कचरा उठाते हुए दिखे ι


कुछ और सही मगर हम एक तो कदम उठाए, कृषि प्रधान इस देश में कोई बच्चा भूख से तो मर जाए ι

२०१७ ©चन्दन शर्मा

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