Sunday, February 19, 2017

उम्दा इंसान



ये महिना कुछ ज्यादा ही खीच गया है,
ख़त्म होने का नाम ही नहीं लेता।
राशन दूकान का बनिया रोज़ पैसे मांगता है,
सब्र से काम ही नहीं लेता
मझले बेटे का अंगूठा अब
जूतों में दबने लगा है।
बड़ी बेटी का सलवार अब
ज़रा छोटा लगने लगा है।
घरवाली के हाथ मिटटी से बर्तन धोते-धोते
खुरदरे हो गए है।
मोहल्ले वाले भी रोज़ चंदा मांगने आ जाते है,
सारे के सारे मसखरे हो गए है।
मेरी साइकिल कुछ ज्यादा ही पुरानी हो गई है,
हर दो दिन में खराब हो जाती है।
छोटी बेटी भी कुछ नहीं समझती,
खिलोने देखते ही बेताब हो जाती है।
सुना है दूध के दाम,
फिर से बढ़ने वाले है।
मकान की मरम्मत भी करनी होगी,
बादल अब चढ़ने वाले है।
तीन महीने पहले सुना था कि तनख्वाह बढ़ेगी,
मगर अब तो ये एक दिवास्वप्न सा लगता है।
और हर सप्ताह महंगाई बढ़ना,
एक रस्म सा लगता है।
सोचता हूँ गाँव की ज़मीन बेच दूँ,
कुछ पैसे हाथ होंगे।
घर से भी बटवारे का जोर है,
सोचा था भाई जीवन भर साथ होंगे।
खैर अब कौन किसका साथ देता है,
ज़माना खुदगर्ज़ सा हो चला है।
सबकी मदद करना,
एक मर्ज़ सा हो चला है।
और मैं दोष भी किसको दूँ,
तबसे मैं भी खुद के लिए ही तो परेशान हूँ।
तो फिर कैसे मान लूँ कि,
मैं एक उम्दा इंसान हूँ।

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