Tuesday, February 28, 2017

मगर शायद

दिमाग के सनाटे की गूंज से
बहरा सा हो गया हूँ मैं।
लोग मुझे कहते है पागल जिसपर मुझे यकीं नहीं

मगर शायद ज़रा सा हो गया हु मैं।
धुंध सी मेरी आँखों के आगे
और पीछे अँधेरा है।
मैं अकेला घबराया हुआ
और अ -लोगों ने मुझे घेरा है।
अजनबीपन मंडराता है मेरे इर्द गिर्द
और डर जाता हूँ मैं कि कहीं मुझे चुन ना ले।
चीखता हूँ मैं तकिये से मुँह दबा के
कि कहीं कोई सुन ना ले।
आइना नहीं दिखा पाता अब मेरे
सही चेहरे को।
रगड़ के धोता हूँ मगर हटा नहीं पता
खुद पर पड़े मुखोटे के पहरे को।
बार बार नब्ज़ महसूस करता हूँ
आश्वस्त हूँ कि सांसे चल रही मगर मरा सा हो गया हूँ मैं।
लोग मुझे कहते है पागल जिसपर मुझे यकीं नहीं
मगर शायद ज़रा सा हो गया हूँ मैं।

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